About The Conference


“Srimad Bhagwat Gita and Sustainable Ecosystem”

Srimad Bhagwat Gita, is a dialogue between Bhagwan Krishna and Prince Arjun before the beginning of the battle of Mahabharata in Kurukshetra, the city which is glorified as the land of Dharma at the very beginning of Gita (धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे). Arjun, the greatest of all warriors, a disciple of Dronacharya and master of all skills, was under delusion leading to dilemmas and weaknesses before the battle. Discouraged by this state of dilemma, he turned to Bhagwan Krishna, his charioteer in the battlefield, to pacify his restlessness and erode his dilemmas at this very crucial moment. Krishna then gave the sermon in the form of Srimad Bhagwad Gita, which encompasses all the spheres of human life, entailing ethical to material.

In a sense, the modern world is the representative of Arjuna as it also stands at the crossroad of dilemmas and uncertainties. The present time, connoted as Kalyuga is characterized with technological advancements, partnerships and alliances for progress, means of ease and comfort. However, these advancements are material in nature and are guided and strengthened by consumption. Increased consumption leads to lust for material comfort and for this businesses and other stakeholders of the society are exploiting the Mother Nature. The issue of sustainability is becoming severe as each year passes by. In 2024, we have witnessed severe temperature touching 50 degrees celsius, insufficient rainfall, floods, landslides, typhoons, and other natural phenomenon touching the extremes. This is one of the major challenges in present times is that the humanity is facing threat to ecosystem in the form of climate change, pollution, wildlife loss, human induced disasters and many more. A lot of brainstorming and collective efforts have been undergoing to get an exit off 'the highway to climate hell.'

Unmindful consumption is leading to depleted forest cover, global warming and then its related consequences. Global warming is melting the glaciers and the polar ice and many cities are on the anvil of being submerged. We need more energy to consume, which is exacerbating the environmental degradation. In a sense, these are warning signs and ignoring them even for a few years may make this planet difficult to live.

Drawing analogies from Arjuna, Srimad Bhagwat Gita emerges as a divine message to save the humanity from these challenges. Gita is much more than a sacred text and has been guiding humanity since time immemorial. The teachings of Bhagwat Gita led Arjuna to overcome all his dilemmas and unrest and made him achieve what was not seemed feasible. The great Indian leader Mahatma Gandhi revered Gita as his "Eternal Mother" which has solutions to all his problems.

Bhagwat Gita is an immense treasure of lessons that can guide humanity towards a sustainable future. Interconnectedness is one such message Gita promotes for common good. The principle of Interconnectedness in the realm of ecosystem preservation can lead to ecological sustainability. Another important idea from Bhagwat Gita is of a balanced lifestyle- Yukta which appeals for sustainable use of resources. Food wastage is key problem of the present times where millions of tonnes of food is wasted every year while the majority population is facing hunger and malnutrition.

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17।।

युक्ताहारविहारस्य in the above shloka is a person who is balanced in eating, sleeping and recreation ends all his sorrows. All the Indian texts advocate for love and care towards nature. Bhagwat Gita augment this notion with the message of duty and responsibility towards nature.

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।13.20।।

Pratisambhavan (प्रकृतिसंभवान्), mentioned in Gita, which that means nature is source of all material manifestations. This love, care and duty have further manifestations which are not confined to artistic love towards nature but the compassion for all living beings. It also promotes the virtue of Ahimsa or Non-violence (अहिंसा परमो धर्मः ) towards all living beings. This lack of compassion towards animals is posing huge threat in the form of over-exploitation where wildlife is being destroyed for infrastructure development and human settlement. Finally, to achieve the goal and organise the efforts, Gita encourages for Selfless action-Karma Yoga. Without action there can not be any results. We see that Climate actions do take place through International Organizations like UN, Government and Non-Government Organisation through various other players in their capacities. But when efforts do not bore fruits, it brings sense of discouragement. Here also Gita’s another message-Nishkama Karma (कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचन) actions without attachment to results, can help in dealing with disappointment.

To achieve the goal of sustainable ecosystem, there need of collective selfless action supported by principles of Interconnectedness for unity among humanity, Balanced Lifestyle for self control , Duty for sense of responsibility towards planet, Non-Violence for protecting living creatures. These principles from Gita can be proved beacon for future climate action and for achieving ecological sustainability.

There is no denying the fact that India in progressing well with globalization and liberalization and well achieve the goal of Viksit Bharat by 2047, but it is important to achieve the developmental goals along-with sustainable ecosystem. 9th International Gita Conference on the theme ‘Srimad Bhagwad Gita and sustainable Ecosystem’ is an effort to bring the academicians, practitioners and Gita Scholars on a common platform to deliberate upon the theme. This conference will also try to find out the ways and mean which leads to promote balanced and pure environment.

"वसुधैव कुटुम्बकम” भारतीय दर्शन में अंतर्निहित एक गहन अवधारणा है, जिसका अर्थ है कि यह “समस्त विश्व अर्थात् यह पृथ्वी एक परिवार है” । यह शाश्वत दर्शन इस विचार का प्रतीक है कि भौगोलिक, सांस्कृतिक अथवा धार्मिक मतभेदों के होने पर भी समस्त मानवता परस्पर सम्बन्धित तथा एक- दूसरे पर आश्रित है। भगवदगीता इस अवधारणा को समझने और वैश्विक एकता को प्रोत्साहन देने के लिए आधारशिला के रूप में कार्य करती है।

भगवदगीता, कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में राजकुमार अर्जुन और भगवान कृष्ण के मध्य एक संवाद है जिसमें अर्जुन के सामने उपस्थित नैतिक द्वंद्वों और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों की चर्चा है। अध्याय 4, श्लोक 13 में, भगवान कृष्ण वसुधैव कुटुम्बकम के मूल अर्थ को व्याख्यायित करते हैंः

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।

भौतिक प्रकृति के तीन गुणों और उनसे जुड़े कार्यों के अनुसार, मानव समाज का चातुर्वण्य (चार वर्णों में विभाजन) मेरे द्वारा रचा गया है। गुण और कर्मों के विभाग से यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ, तथापि तुम मुझे अविनाशी होने के कारण अकर्ता जानो।।

यह श्लोक सभी प्राणियों के उस दिव्य स्रोत से सम्बन्धों को रेखांकित करता है जिससे वे उत्पन्न हुए हैं। यह इस बात पर बल देता है चाहे प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सामाजिक भूमिका या पृष्ठभूमि कैसी भी हो, वह विशाल समग्र का भाग है। मानवता की एकता की यह मान्यता वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन के केंद्र में है।

वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा पूरे भगवदगीता में कई श्लोकों में अभिव्यक्त की गई है। उदाहरण के लिए, अध्याय 6 के श्लोक 30 में, भगवान कृष्ण कहते हैं, “जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।” यह श्लोक सभी प्रकार के जीवन के अंतर्सम्ब्न्धों पर बल देते हुए सभी जीवित प्राणियों में दिव्य उपस्थिति को समझने के विचार को रेखांकित करता है।

वसुधैव कुटुम्बकम के व्यावहारिक परिणाम दूरगामी हैं। यह व्यक्तियों और राष्ट्रों के मध्य सहिष्णुता, करुणा और सहयोग को प्रोत्साहित करता है। इसे आधुनिक वैश्विक समस्याओं जैसे जलवायु परिवर्तन, गरीबी और संघर्ष जैसी चुनौतियों पर लागू कर, समग्र मानव समाज के कल्याण के लिए सामूहिक प्रयास भी किये जा सकते हैं। यह राष्ट्रों को अपने मतभेदों को अलग रखने और समस्त मानव परिवार के मंगल के लिए मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

इसके अतिरिक्त, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना वैश्विक नागरिकता के विचार को बढ़ावा देती है। यह लोगों को राष्ट्रीयता, जातीयता या रिलिजन पर आधारित संकीर्ण निष्ठाओं से निवृत्त होने और अपनी सामूहिक मानवता को पहचानने के लिए प्रोत्साहित करता है। दृष्टिकोण में यह परिवर्तन विश्व भर के लोगों द्वारा सहे जाने वाली पीड़ाओं और अन्यायों को दूर करने के लिए अधिक संवेदनशीलता और सुदृढ़ प्रतिबद्धता का कारक बन सकता है।

इस अवधारणा का पर्यावरण संरक्षण पर भी प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी को एक सामूहिक आवास के रूप में पहचानते हुए, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पृथ्वी के उत्तरदायित्वपूर्ण प्रबंधन को प्रोत्साहित करता है। यह ऐसी संपोषणीय प्रथाओं को बढ़ावा देता है जो वर्तमान और भावी पीढ़ियों की भलाई सुनिश्चित करते हैं और इस विचार को भी सुदृढ़ बनाते हैं कि हमारे कार्य न केवल हमारे अपने समुदाय को बल्कि पूरे वैश्विक परिवार को प्रभावित करते हैं। अध्याय 7, श्लोक 4 में, भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैंः

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा II

(पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।।)

इस भौतिक जगत को समाहित करने वाली ऊर्जा अविश्वसनीय रूप से जटिल और अथाह है। हमारी सीमित बुद्धि के अनुरूप इसे बोधगम्य बनाने के लिए, हमने इसे विभिन्न श्रेणियों और उप-श्रेणियों में विभाजित किया है। इस एक भौतिक ऊर्जा मात्र ने इस जगत के अनगिनत आकारों, रूपों और सत्ताओं में अपना विस्तार किया है। भगवान श्रीकृष्ण ने मन, बुद्धि और अहंकार के साथ-साथ पाँच स्थूल तत्वों को अपनी भौतिक शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियों के रूप में शामिल किया है।

वैश्वीकरण के युग में वसुधैव कुटुम्बकम की नई सार्थकता है। आज विश्व, पहले की तुलना में परस्पर एक दूसरे से कहीं अधिक जुड़ा हुआ है, और विश्व के एक स्थान पर होने वाली घटनाओं के दूरगामी परिणाम किसी और स्थान पर हो सकते हैं। यह अंतर्संबंध हमें एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपनाने और भौगोलिक सीमाओं से हटकर, सामूहिक रूप से चुनौतियों का समाधान करने के लिए परस्पर साथ मिलकर काम करने के महत्व को रेखांकित करता है।

पिछले कुछ समय में वैश्विक एकता के विचार को अंतरराष्ट्रीय विचार-विमर्श में प्रमुखता मिली है। विश्व की जनता और राष्ट्र जलवायु परिवर्तन, गरीबी और महामारियों जैसी वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए सहयोग और सहभागिता की आवश्यकता को स्वीकार रहे हैं। वसुधैव कुटुंबकम की भावना इस तरह के प्रयासों के लिए एक नैतिक और धार्मिक आधार प्रदान करती है, और हमें याद दिलाती है कि मानवता की हमारी सामूहिक भावना को हमारे कार्यों और निर्णयों का मार्गदर्शन करना चाहिए।

आज जब विश्व राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेदों में विभाजित प्रतीत होता है, तो वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाता है। यह हमें पक्षपात और पूर्वाग्रह को दूर करने तथा एक सामंजस्यपूर्ण और समावेशी विश्व की प्राप्ति की दिशा में काम करने का आह्वान करता है।

यह हमें अपने आसपास के समाज समुदायों से परे अपनी करुणा का विस्तार करने और पूरे विश्व को अपने परिवार के रूप में स्वीकार करने के लिए निमन्त्रण देता है। इस अवधारणा के सुंदर आयामों में से एक आयाम यह है कि यह किसी विशेष धर्म या विश्वास प्रणाली तक सीमित नहीं है। यद्यपि इसकी जड़ें भगवदगीता में पाई जाती हैं, इसके सार्वभौमिक आह्वान ने विश्व के विभिन्न धर्मों और पृष्ठभूमि के लोगों को इसे अपनाने के लिए प्रेरित किया है। एक ऐसी विश्व में जहां धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता एक वास्तविकता है, वसुधैव कुटुम्बकम एक एकीकृत दर्शन के रूप में कार्य करता है जो धार्मिक सीमाओं से परे है। ऐसा नहीं है कि वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा के समक्ष चुनौतियों नहीं है। समस्त विश्व जो संघर्षों, विभाजनों और असमानताओं से भरा पड़ा है, ऐसे में वैश्विक एकता प्राप्त करना एक जटिल और महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। इसके लिए संवाद, आपसी समझ और कूटनीति के लिए प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। यह इस बात पर भी बल देती है कि दीर्घकाल से चले आ रहे व्यवस्थाजन्य अन्याय का भी समाधान हो जिसके कारण समाज में असमानता और विभाजन है।

वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा हमें विश्व को एक परिवार के रूप में देखने और सभी व्यक्तियों के साथ प्यार, करुणा और सम्मान के साथ व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करती है। जैसा कि विश्व जटिल चुनौतियों का सामना कर रहा है और जिसके लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है, ऐसे समय में वसुधैव कुटुम्बकम का यह दर्शन एक मार्गदर्शक स्तम्भ के रूप में कार्य करता है, जो हमें समस्त मानवता और पृथ्वी की बेहतरी के लिए एक साथ काम करने के लिए प्रेरित करता है।

श्रीमद भगवदगीता की शिक्षाएँ, वसुधैव कुटुम्बकम की भांति एकता और परस्पर जुड़ाव का एक शक्तिशाली और कालातीत संदेश प्रदान करती हैं। यह व्यक्तियों और राष्ट्रों से उनकी साझा मानवता को पहचानने और अधिक से अधिक भलाई के लिए साथ मिलकर काम करने का आह्वान करती है। हालांकि वैश्विक एकता का मार्ग चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन इस दर्शन को अपनाने से एक अधिक दयालु, न्यायपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण विश्व का निर्माण हो सकता है जहां सभी के कल्याण को एक साझा जिम्मेदारी के रूप में बरकरार रखा जाता है।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इत्यस्य भावना भारतीयदर्शनेषु अन्तर्निहिता गूढावधारणा विद्यते । एतद्वाक्यार्थस्तावत् . निखिलमपि विश्वम् एकः परिवार एवास्तीति। वसुधैव कुटुम्बकमिति दर्शनमेतत् व्यनक्ति यत् भौगोलिक-सांस्कृतिक-धार्मिकमतभेदान् विहाय सम्पूर्णमनुष्यताऽन्योन्याश्रिता एवास्ति। श्रीमद्भगवद्गीता वसुधैवकुटुम्बकम् इत्यस्यावधारणां भावं विचारञ्चाभिज्ञातुं वैश्विकमैक्यं वर्धितुञ्च आधारशिलैव कार्यं करोति ।

श्रीमद्भगवद्गीता धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे यु़द्धभूमौ श्रीकृष्णार्जुनयोर्मध्ये सञ्जातसंवादः विद्यते। अयं ग्रन्थः अर्जुनस्य विषादमोह- कर्तव्यमूढावस्थासु विविधप्रश्नानामाशङ्कानाञ्चोत्तरं प्रस्तौति । चतुर्थाध्याये त्रयोदशतमे श्लोके भगवान् कृष्णः वसुधैव- कुटुम्बकम् इति विचारस्य सारं प्रस्तौति -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।

अस्या भावस्तावदयं यत् भौतिकप्रकृतेः त्रयो गुणाः, तत्सम्बधि-कार्यानुसारं मानवसमाजस्य चत्वारो विभागाः मया सृष्टाः। अयं श्लोकः सर्वेषामपि प्राणिनां सम्बन्धं तेषां च तत् समुत्पत्तिस्रोतं व्यनक्ति यतः इमे निस्सरन्ति । एवमेक स्मादेवोत्पत्तिस्थानात् सर्वे प्राणिनः तंदशा एव सन्ति। मनुष्यतायाः विचारोऽयं वसुधैव कुटुम्बकं दर्शनस्य केन्द्रमस्ति ।

एतद्दर्शनं श्रीमद्भगवद्गीतायामनेकश्लोकेषु दृश्यते। यथा षष्ठाध्याये त्रिंशत्तमे श्लोके भगवान् कृष्णः वदति यत् -

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च न मे प्रणश्यति।।

अयं श्लोकः सर्वप्राणिषु दिव्यांशस्योपस्थितिं सूचयति । वसुधैव-कुटुम्बकम्‘ इति विचारस्य निहितार्थाः गूढास्सन्ति । इदं वाक्यं मानवेषु राष्ट्रेषु च मध्ये सहिष्णुतां, करुणां सहयोगस्य भावनां विकासयति प्रेरयति च । इदं वाक्यं संसारस्य विभिन्नसमस्यानां समाधानाय सकलमपि विश्वम् एकसूत्रे आनयति । विविधमतभेदान् त्यक्त्वा राष्ट्रकल्याणाय युगपत् कार्यकरणस्य भावनामपि प्रेरयति वाक्यमिदम्।

एतदतिरिच्यापि वसुधैव कुटुम्बकम् वैश्विकनागरिकतायाः विचारान्नपि वर्धयति । इदं मानवान् विविधसङ्कीर्णतां परित्यज्य मनुष्यधर्मार्थं प्रोत्साहयति ।

वसुधैवकुटुम्बकमित्यस्य अवधारणया पर्यावरणसंरक्षणमपि वर्धते। अयं विचारः सनातनप्रकृतेः स्थापनार्थं प्रकृतिरक्षणार्थञ्च अतीवावश्यक एव। भविष्यत्समाजाय शुद्धं वातावरणम् अनेनैव विचारणेन निमार्तुं शक्यते । विश्वस्य सर्वे देशाः राज्यानि च आत्मनं एकपरिवार इति मन्वानाः समस्याभिः योद्धुं शक्नुवन्ति। सप्तमाध्याये चतुर्थश्लोके भगवान् कृष्णः अर्जुनं वदति -

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा II

वैश्वीकरणस्यास्मिन्युगे वसुधैवकुटुम्बकमित्यस्य माहात्म्यमितोऽपि वर्धितमास्ते। विश्वं पूर्वसमयापेक्षया सम्प्रति अन्योन्याश्रितं युक्तं च दृश्यते । विश्वे क्वचित् काचित् घटना सम्भवति चेत् तत्प्रभावः विश्वस्यान्यक्षेत्रेषु देशेषु च सम्भवति । अयमेतादृक् वैश्विक-सम्बन्धः अकल्पनीयघटनानां समस्यानाञ्च समाधानाय परस्परं सहयोगेन कार्यकरणस्य भावमेव दर्शयति ।

वर्तमानसमये अन्ताराष्ट्रियविचारगोष्ठीषु सम्मेलनेषु च वैश्विक-एकतायाः विचाराः प्रामुख्यम् अलभन् विश्वस्य चिन्तकाः, वैज्ञानिकाः, नेतारश्च जलवायुपरिवर्तनस्य निर्धनताविषयस्य तथा महामारीत्यादीनां विषयाणां समाधानाय परस्परं सहयोगस्यापेक्षतां स्वीकुर्वन्तः सन्ति। वसुधैव कुटुम्बकम् अस्मान् युगपत् कार्यार्थं निर्णयार्थञ्च मार्गं निर्दिशति ।

अद्यत्वे विश्वं पूर्वापेक्षयाऽधिकं विभक्तमास्ते, अतः वसुधैव-कुटुम्बकमित्यस्य संदेशः इतोऽपि प्रासङ्गिकः विद्यते । इदं वाक्यम् एकमावाहनवाक्यम्, एतवाक्यं सङ्घाय प्रेरयति, एतर्द्वाक्यं सकलसमस्यानां निवारणाय मतैक्यार्थं प्रेरयति।

श्रीमद्भगवद्गीतायाः शिक्षाः वसुधैवकुटुम्बकम् इति भावना सम्बन्धिनीम् एकतां, परस्परसहयोगस्य सूत्रं, समस्या-समाधानाय मार्गं च निर्दिशति । गीतायाः शिक्षाः मानवसमाजं सकलमपि विश्वं च मानवतायाः कर्तव्यं धर्म च ज्ञातुं मतैक्येन चलितुं च आह्वानं कुर्वते । यद्यपि वैश्विकैकतायाः मार्गः कठिनः, तथापि एतद्दर्शनं स्वीकुर्मश्चेत् अन्योन्यं प्रति सौदर्यभावः, साहाय्य- भावः, प्रकृतिप्रेम, कुटुम्बकस्य भावश्च भवितुमर्हति।