"वसुधैव कुटुम्बकम” भारतीय दर्शन में अंतर्निहित एक गहन अवधारणा है, जिसका अर्थ है कि यह “समस्त विश्व अर्थात् यह पृथ्वी एक परिवार है” । यह शाश्वत दर्शन इस विचार का प्रतीक है कि भौगोलिक, सांस्कृतिक अथवा धार्मिक मतभेदों के होने पर भी समस्त मानवता परस्पर सम्बन्धित तथा एक- दूसरे पर आश्रित है। भगवदगीता इस अवधारणा को समझने और वैश्विक एकता को प्रोत्साहन देने के लिए आधारशिला के रूप में कार्य करती है।
भगवदगीता, कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में राजकुमार अर्जुन और भगवान कृष्ण के मध्य एक संवाद है जिसमें अर्जुन के सामने उपस्थित नैतिक द्वंद्वों और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों की चर्चा है। अध्याय 4, श्लोक 13 में, भगवान कृष्ण वसुधैव कुटुम्बकम के मूल अर्थ को व्याख्यायित करते हैंः
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।
भौतिक प्रकृति के तीन गुणों और उनसे जुड़े कार्यों के अनुसार, मानव समाज का चातुर्वण्य (चार वर्णों में विभाजन) मेरे द्वारा रचा गया है। गुण और कर्मों के विभाग से यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ, तथापि तुम मुझे अविनाशी होने के कारण अकर्ता जानो।।
यह श्लोक सभी प्राणियों के उस दिव्य स्रोत से सम्बन्धों को रेखांकित करता है जिससे वे उत्पन्न हुए हैं। यह इस बात पर बल देता है चाहे प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सामाजिक भूमिका या पृष्ठभूमि कैसी भी हो, वह विशाल समग्र का भाग है। मानवता की एकता की यह मान्यता वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन के केंद्र में है।
वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा पूरे भगवदगीता में कई श्लोकों में अभिव्यक्त की गई है। उदाहरण के लिए, अध्याय 6 के श्लोक 30 में, भगवान कृष्ण कहते हैं, “जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।” यह श्लोक सभी प्रकार के जीवन के अंतर्सम्ब्न्धों पर बल देते हुए सभी जीवित प्राणियों में दिव्य उपस्थिति को समझने के विचार को रेखांकित करता है।
वसुधैव कुटुम्बकम के व्यावहारिक परिणाम दूरगामी हैं। यह व्यक्तियों और राष्ट्रों के मध्य सहिष्णुता, करुणा और सहयोग को प्रोत्साहित करता है। इसे आधुनिक वैश्विक समस्याओं जैसे जलवायु परिवर्तन, गरीबी और संघर्ष जैसी चुनौतियों पर लागू कर, समग्र मानव समाज के कल्याण के लिए सामूहिक प्रयास भी किये जा सकते हैं। यह राष्ट्रों को अपने मतभेदों को अलग रखने और समस्त मानव परिवार के मंगल के लिए मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
इसके अतिरिक्त, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना वैश्विक नागरिकता के विचार को बढ़ावा देती है। यह लोगों को राष्ट्रीयता, जातीयता या रिलिजन पर आधारित संकीर्ण निष्ठाओं से निवृत्त होने और अपनी सामूहिक मानवता को पहचानने के लिए प्रोत्साहित करता है। दृष्टिकोण में यह परिवर्तन विश्व भर के लोगों द्वारा सहे जाने वाली पीड़ाओं और अन्यायों को दूर करने के लिए अधिक संवेदनशीलता और सुदृढ़ प्रतिबद्धता का कारक बन सकता है।
इस अवधारणा का पर्यावरण संरक्षण पर भी प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी को एक सामूहिक आवास के रूप में पहचानते हुए, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पृथ्वी के उत्तरदायित्वपूर्ण प्रबंधन को प्रोत्साहित करता है। यह ऐसी संपोषणीय प्रथाओं को बढ़ावा देता है जो वर्तमान और भावी पीढ़ियों की भलाई सुनिश्चित करते हैं और इस विचार को भी सुदृढ़ बनाते हैं कि हमारे कार्य न केवल हमारे अपने समुदाय को बल्कि पूरे वैश्विक परिवार को प्रभावित करते हैं। अध्याय 7, श्लोक 4 में, भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैंः
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा II
(पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।।)
इस भौतिक जगत को समाहित करने वाली ऊर्जा अविश्वसनीय रूप से जटिल और अथाह है। हमारी सीमित बुद्धि के अनुरूप इसे बोधगम्य बनाने के लिए, हमने इसे विभिन्न श्रेणियों और उप-श्रेणियों में विभाजित किया है। इस एक भौतिक ऊर्जा मात्र ने इस जगत के अनगिनत आकारों, रूपों और सत्ताओं में अपना विस्तार किया है। भगवान श्रीकृष्ण ने मन, बुद्धि और अहंकार के साथ-साथ पाँच स्थूल तत्वों को अपनी भौतिक शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियों के रूप में शामिल किया है।
वैश्वीकरण के युग में वसुधैव कुटुम्बकम की नई सार्थकता है। आज विश्व, पहले की तुलना में परस्पर एक दूसरे से कहीं अधिक जुड़ा हुआ है, और विश्व के एक स्थान पर होने वाली घटनाओं के दूरगामी परिणाम किसी और स्थान पर हो सकते हैं। यह अंतर्संबंध हमें एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपनाने और भौगोलिक सीमाओं से हटकर, सामूहिक रूप से चुनौतियों का समाधान करने के लिए परस्पर साथ मिलकर काम करने के महत्व को रेखांकित करता है।
पिछले कुछ समय में वैश्विक एकता के विचार को अंतरराष्ट्रीय विचार-विमर्श में प्रमुखता मिली है। विश्व की जनता और राष्ट्र जलवायु परिवर्तन, गरीबी और महामारियों जैसी वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए सहयोग और सहभागिता की आवश्यकता को स्वीकार रहे हैं। वसुधैव कुटुंबकम की भावना इस तरह के प्रयासों के लिए एक नैतिक और धार्मिक आधार प्रदान करती है, और हमें याद दिलाती है कि मानवता की हमारी सामूहिक भावना को हमारे कार्यों और निर्णयों का मार्गदर्शन करना चाहिए।
आज जब विश्व राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेदों में विभाजित प्रतीत होता है, तो वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाता है। यह हमें पक्षपात और पूर्वाग्रह को दूर करने तथा एक सामंजस्यपूर्ण और समावेशी विश्व की प्राप्ति की दिशा में काम करने का आह्वान करता है।
यह हमें अपने आसपास के समाज समुदायों से परे अपनी करुणा का विस्तार करने और पूरे विश्व को अपने परिवार के रूप में स्वीकार करने के लिए निमन्त्रण देता है। इस अवधारणा के सुंदर आयामों में से एक आयाम यह है कि यह किसी विशेष धर्म या विश्वास प्रणाली तक सीमित नहीं है। यद्यपि इसकी जड़ें भगवदगीता में पाई जाती हैं, इसके सार्वभौमिक आह्वान ने विश्व के विभिन्न धर्मों और पृष्ठभूमि के लोगों को इसे अपनाने के लिए प्रेरित किया है। एक ऐसी विश्व में जहां धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता एक वास्तविकता है, वसुधैव कुटुम्बकम एक एकीकृत दर्शन के रूप में कार्य करता है जो धार्मिक सीमाओं से परे है। ऐसा नहीं है कि वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा के समक्ष चुनौतियों नहीं है। समस्त विश्व जो संघर्षों, विभाजनों और असमानताओं से भरा पड़ा है, ऐसे में वैश्विक एकता प्राप्त करना एक जटिल और महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। इसके लिए संवाद, आपसी समझ और कूटनीति के लिए प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। यह इस बात पर भी बल देती है कि दीर्घकाल से चले आ रहे व्यवस्थाजन्य अन्याय का भी समाधान हो जिसके कारण समाज में असमानता और विभाजन है।
वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा हमें विश्व को एक परिवार के रूप में देखने और सभी व्यक्तियों के साथ प्यार, करुणा और सम्मान के साथ व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करती है। जैसा कि विश्व जटिल चुनौतियों का सामना कर रहा है और जिसके लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है, ऐसे समय में वसुधैव कुटुम्बकम का यह दर्शन एक मार्गदर्शक स्तम्भ के रूप में कार्य करता है, जो हमें समस्त मानवता और पृथ्वी की बेहतरी के लिए एक साथ काम करने के लिए प्रेरित करता है।
श्रीमद भगवदगीता की शिक्षाएँ, वसुधैव कुटुम्बकम की भांति एकता और परस्पर जुड़ाव का एक शक्तिशाली और कालातीत संदेश प्रदान करती हैं। यह व्यक्तियों और राष्ट्रों से उनकी साझा मानवता को पहचानने और अधिक से अधिक भलाई के लिए साथ मिलकर काम करने का आह्वान करती है। हालांकि वैश्विक एकता का मार्ग चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन इस दर्शन को अपनाने से एक अधिक दयालु, न्यायपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण विश्व का निर्माण हो सकता है जहां सभी के कल्याण को एक साझा जिम्मेदारी के रूप में बरकरार रखा जाता है।